अधूरी सी मुलाक़ातें...

 कहते हैं,

मुलाक़ात वो नहीं होती                                                                                                        

जो वक़्त पर हो,
जो तयशुदा घंटों में दस्तक दे,
और चाय ठंडी हो जाने से पहले ख़त्म हो जाए।                                                                            

                            
कुछ मुलाक़ातें
कभी कभी बहुत देर से आती हैं,
इतनी देर से
कि दिल को पहले खुद को समेटना पड़ता है,

कभी एक लम्हा लौटता है
बरसों की ख़ामोशी के बाद,
थोड़ा थका हुआ,
थोड़ा बिखरा हुआ—
जैसे कोई पुराना खत
बरसात में भीग कर अब खुला हो,
जिसके अक्षर धुंधला चुके हैं
पर जज़्बात अब भी गीले हैं।


और उस  लम्हे में
तेरा चेहरा बिल्कुल वैसा ही लगा—
जैसे किसी अलमारी के सबसे भीतरी कोने  के किताब में
एक फूल अब भी महक रहा हो
किसी भूले हुए खत की सिलवटों में।


तू आया था उस दिन,
बैठा भी मेरे सामने,
तेरे होंठ मुस्कुराए,
तेरी आँखों ने कुछ कहना चाहा,
पर  तेरी चुप्पी ने सब रोक लिया।
और तेरे जाने के बाद भी
मेरा तुझसे मिलना बाक़ी था।


कभी लफ़्ज़ अधूरे रह गए,
कभी लम्हा पूरा न हुआ,
हर बार तू
थोड़ा और धुंधला हुआ,
और हर मुलाक़ात
थोड़ा और खो गई।
मुलाक़ातें अब वक़्त से बाहर होती हैं—
ख़्वाबों के किसी पुराने फ्रेम में,
जिसमें तस्वीर तो है
पर चेहरा नहीं दिखता।


अब जब तू नहीं होता,
तब मैं सबसे ज़्यादा तुझसे मिलता हूँ।
तेरी ख़ामोशी मेरे कमरे की दीवारों में है,
तेरी दस्तक अब भी मेरी नींद को चौंकाती है,
तेरी आवाज़—
वो जो कभी साफ़ सुनाई नहीं दी—
कभी हर सन्नाटे में गूंजती है।
मुलाक़ातें अब बस एक एहसास हैं,
जो आता है, रुकता है,
कुछ नहीं कहता...
और फिर चला जाता है,


अब तू आना,
तो आधे लम्हों की तरह मत आना,
ना उन ख़्वाबों की तरह
जो अधूरी नींद में टूट जाते हैं।
तू आना
तो अपनी पुरानी ख़ुशबू में आना,
जैसी तू थी...
कच्ची, सच्ची, उलझी हुई सी,

अब तू आना 
तो पूरा आना,
हर वो मुस्कान साथ लाना 
जो तेरे जाने के बाद 
आइनों में मुझसे मांगी थी। 


क्यूंकि मैं अब भी
हर बार तुझसे मिलकर
थोड़ा और अधूरा होता जाता हूँ।



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